माउंट आबू में है दुनिया का इकलौता मंदिर जहां होती है शिव के अंगूठे की पूजा
Source: हिन्दू धर्म के अनुसार भगवान शिव एकलौते ऐसे भगवान है जिनके लिंग की
पूजा को सर्वोपरी समझा जाता है. पर आज हम आपको भगवान शिव के एक ऐसे मंदिर
के बारे में बता रहे हैं, जहां लिंग को पूजने की बजाये उनके अंगूठे को पूजा
जाता है. राजस्थान का माउंट आबू कई जैन मंदिरों के अलावा भगवान शिव के कई
प्राचीन मंदिरों का घर भी है.
माउंट आबू के बारे में लोगों का कहना है कि जैसे बनारस को शिव की नगरी कहा जाता है, वैसे ही माउंट आबू को शिव का उपनगर कहते हैं. इसका उल्लेख स्कंद पुराण में भी मिलता है. यही से करीब 11 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा की तरफ अचलगढ़ की पहाड़ियों पर किले के पास स्थित है अचलेश्वर माहदेव मंदिर, जहां पर शिव जी के पैर के अंगूठे की पूजा की जाती है. ऐसा माना जाता है दाहिने पैर के इस अंगूठे पर शिव ने माउंट आबू पहाड़ को थाम रखा है और जिस दिन ये अंगूठे का निशान गायब हो जाएगा तब माउंट आबू का ये पहाड़ भी ख़त्म हो जाएगा.
माउंट आबू के उत्थान को ले कर भी कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें से एक यह है कि जहां आज आबू पर्वत स्थित है, प्राचीन काल में वहां पर एक ब्रह्म खाई थी. इसी के किनारे वशिष्ठ मुनि रहते थे. एक बार उनकी गाय कामधेनु घास चरते हुए ब्रह्म खाई में गिर गई. उसे बचाने के लिए मुनि ने सरस्वती और गंगा का आह्वान किया, जिससे ब्रह्म खाई पानी से भर गई और कामधेनु गाय जमीन पर आ गई.
भविष्य में यह घटना दुबारा न हो इसके लिए वशिष्ठ मुनि, हिमालय जा कर पर्वतराज से ब्रह्म खाई को भरने की विनती की. मुनि के अनुरोध पर हिमालय ने अपने प्रिय पुत्र नंदी वद्र्धन को जाने का आदेश दिया, जिसे अर्बुद नाग नंदी हिमालय से उड़ा कर ब्रह्म खाई के पास लाया. इसके बाद वद्र्धन ने मुनि से वरदान मांगा कि उसके ऊपर सप्त ऋषियों का आश्रम होना चाहिए और यह पहाड़ सुंदर और वनस्पतियों से भरपूर होना चाहिए. जबकि इस पहाड़ को यहां तक पहुंचाने वाले अर्बुद नाग ने वर मांगा कि इस पर्वत का नामकरण उसके नाम से हो. इसके बाद से नंदी वद्र्धन आबू पर्वत के नाम से जाना जाने लगा.
वरदान प्राप्त कर के जब नंदी वद्र्धन खाई में उतरा तो अंदर धंसता चला गया. सिर्फ इसका नाक और ऊपर का हिस्सा ही जमीन से ऊपर रहा. इतना सब होने के बावजूद जब वह अचल नहीं रह पा रहा था, तब वशिष्ठ के विनम्र अनुरोध पर भगवान शिव ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे से इसे अचल कर दिया. इसी वजह से यह क्षेत्र अचलगढ़ के नाम से पहचाना जाता है. भगवान शिव के अंगूठे का महत्व होने की वजह से यहां महादेव के अंगूठे की पूजा की जाती है.
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माउंट आबू के बारे में लोगों का कहना है कि जैसे बनारस को शिव की नगरी कहा जाता है, वैसे ही माउंट आबू को शिव का उपनगर कहते हैं. इसका उल्लेख स्कंद पुराण में भी मिलता है. यही से करीब 11 किलोमीटर दूर उत्तर दिशा की तरफ अचलगढ़ की पहाड़ियों पर किले के पास स्थित है अचलेश्वर माहदेव मंदिर, जहां पर शिव जी के पैर के अंगूठे की पूजा की जाती है. ऐसा माना जाता है दाहिने पैर के इस अंगूठे पर शिव ने माउंट आबू पहाड़ को थाम रखा है और जिस दिन ये अंगूठे का निशान गायब हो जाएगा तब माउंट आबू का ये पहाड़ भी ख़त्म हो जाएगा.
इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर ही पंच धातु की बनी नंदी
की एक विशाल प्रतिमा है, जिसका वजन लगभग चार टन हैं. मंदिर के गर्भगृह
पहुंचने पर आप धरती में समाये हुए शिवलिंग को देखेंगे, जिसके ऊपर की और एक
पैर के अंगूठे का निशान उभरा हुआ है. इस अंगूठे को यहां स्वयंभू शिवलिंग के
रूप में पूजा जाता है. ऐसा माना जाता है कि यह देवाधिदेव शिव का दाहिना
अंगूठा है.
मंदिर
परिसर में मौजूद विशाल चंपा का पेड़ मंदिर की प्राचीनता को दर्शाता है.
इसके बायीं ओर एक कलात्मक खंभों पर खड़ा धर्मकांटा बना हुआ है, जिसकी
सुंदरता देखते ही बनती है. इसके बारे में लोगों का मानना है कि यहां के
राजा राजसिंहासन पर बैठने के समय अचलेश्वर महादेव से आशीर्वाद प्राप्त करते
थे और धर्मकांटे के नीचे बैठकर न्याय की शपथ लेते थे. भगवान शिव के अलावा
भगवान विष्णु के वाराह, नृसिंह, वामन, कच्छप, मत्स्य, कृष्ण, राम, परशुराम,
बुद्ध व कलंगी आदि अवतारों की झलक काले पत्थर की भव्य मूर्तियों के रूप
में देखने को मिलती है. इसके अलावा यहां द्वारिकाधीश मंदिर भी मौजूद है. माउंट आबू के उत्थान को ले कर भी कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें से एक यह है कि जहां आज आबू पर्वत स्थित है, प्राचीन काल में वहां पर एक ब्रह्म खाई थी. इसी के किनारे वशिष्ठ मुनि रहते थे. एक बार उनकी गाय कामधेनु घास चरते हुए ब्रह्म खाई में गिर गई. उसे बचाने के लिए मुनि ने सरस्वती और गंगा का आह्वान किया, जिससे ब्रह्म खाई पानी से भर गई और कामधेनु गाय जमीन पर आ गई.
भविष्य में यह घटना दुबारा न हो इसके लिए वशिष्ठ मुनि, हिमालय जा कर पर्वतराज से ब्रह्म खाई को भरने की विनती की. मुनि के अनुरोध पर हिमालय ने अपने प्रिय पुत्र नंदी वद्र्धन को जाने का आदेश दिया, जिसे अर्बुद नाग नंदी हिमालय से उड़ा कर ब्रह्म खाई के पास लाया. इसके बाद वद्र्धन ने मुनि से वरदान मांगा कि उसके ऊपर सप्त ऋषियों का आश्रम होना चाहिए और यह पहाड़ सुंदर और वनस्पतियों से भरपूर होना चाहिए. जबकि इस पहाड़ को यहां तक पहुंचाने वाले अर्बुद नाग ने वर मांगा कि इस पर्वत का नामकरण उसके नाम से हो. इसके बाद से नंदी वद्र्धन आबू पर्वत के नाम से जाना जाने लगा.
वरदान प्राप्त कर के जब नंदी वद्र्धन खाई में उतरा तो अंदर धंसता चला गया. सिर्फ इसका नाक और ऊपर का हिस्सा ही जमीन से ऊपर रहा. इतना सब होने के बावजूद जब वह अचल नहीं रह पा रहा था, तब वशिष्ठ के विनम्र अनुरोध पर भगवान शिव ने अपने दाहिने पैर के अंगूठे से इसे अचल कर दिया. इसी वजह से यह क्षेत्र अचलगढ़ के नाम से पहचाना जाता है. भगवान शिव के अंगूठे का महत्व होने की वजह से यहां महादेव के अंगूठे की पूजा की जाती है.
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