बात बॉलीवुड से शुरू करते हैं और बॉलीवुड पर ही ख़त्म, क्योंकि भारतीय
सिनेमा की जड़ें बॉलीवुड से बहुत गहरी हैं. भारत में हर साल विश्व की सबसे
ज़्यादा फ़िल्में बनती हैं.इनमें से कितनी फ़िल्मों के नाम और अदाकारों का
काम आपको याद रहता है, यह एक अलग मसला है. लेकिन उस दौर में जिसमें सब एक
लकीर पर काम कर रहे हैं, कुछ अलहदा किस्म की फ़िल्मों को स्क्रीन तक
पहुंचाना काफ़ी काबिल-ए-तारिफ़ काम है.
जावेद अख़्तर कहते हैं कि “हर एक कहानी का और किरदार का एक
समय होता है लेकिन फ़िर भी कुछेक मसले ऐसे होते हैं, जो बाज़ार में न होते
हुए भी दिलों को छू जाते हैं".शायद यह फ़िल्में उसी का एक उदाहरण हैं.
1. उड़ान (2000)
विक्रमादित्य मोटवानी इस फ़िल्म के निर्देशक होने के साथ-साथ इसके लेखक
भी हैं. हालांकि फ़िल्म का अत्याधिक हिस्सा अनुराग कश्यप ने लिखा है. अपने
हठीले और स्वार्थी पिता के दबदबे के चलते एक नादांन बच्चा किस तरह से अपने
अरमानों को दबाकर जीता है, ये इस फ़िल्म में दिखाया गया है. अंत में अपने
सपनों का भार लादे वो जिस तरह से दौड़ता है, उससे यही मालूम होता है कि
परिंदों को उड़ान भरने से कोई नहीं रोक सकता.
2. मातृभूमि (2003)
इस फ़िल्म का निर्देशन और लेखन मनीष झा ने किया है. फ़िल्म एक ऐसी
कल्पना पर आधारित है जिसकी जड़ें रूढ़िवादिता के पेड़ तले दबी हैं. फ़िल्म
में एक ऐसे गांव की झलक दिखाई गई है जिसमें महिलाओं का नामोनिशां मर्दों ने
अपनी हरकतों से मिटा दिया है. यहां जो भी लड़की पैदा होती है, उसे मार
दिया जाता है. इसी सोच के चलते गांव की एक पीढ़ी कंवारी रह जाती है. पास के
गांव में एक लड़की मिलती है तो उससे पांच सगे भाईयों की शादी करवा दी जाती
है. प्रेम का कहीं नाम नहीं बल्कि वासना का सच दिखाया गया है मातृभूमि
में. इस फ़िल्म को कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया है.
3. The Lunchbox (2013)
रितेश बत्रा द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म एक रोमेंटिक लव स्टोरी है. घर
में रह रही एक औरत के प्यार की कहानी किस तरह से पनपती है, यह इसमें बड़ी
बख़ूबी दिखाया गया है. इरफ़ान खान और निमरित कौर के अभिनय के साथ-साथ
नवाजुद्दीन सिद्दक़ी ने फ़िल्म में जान डाल दी.
4. 3 Idiots
राज कुमार हिरानी एक ऐसे निर्देशक हैं जिन्हें छोटी-छोटी बातों में
बड़े-बड़े सवाल-जवाब उठाना अच्छा लगता है. ऐसी ही एक फ़िल्म 3 Idiots...
जिसने समाज की रवायत पर कुछ सवाल उठाये. विद्यार्थी जीवन की जड़ों से जुड़े
कुछ सच जिन्हें नकारने की पहल राजू हिरानी साहब ने अपनी इस फ़िल्म से की.
आमिर ख़ान, करीना कपूर ख़ान, शर्मन जोशी और आर माधवन के साथ-साथ बोमन इरानी
ने फ़िल्म को अपनी एक्टिंग से सालों-सालों के लिए एक प्ररेणा बना दिया.
5. इंग्लिश-विंग्लिश
सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की आंखों को जिस कलाकृति (फ़िल्म) ने आसूओं
से भिगो दिया हो उसे इंग्लिश-विग्लिश कहा जाता है. इस फ़िल्म की कहानी
थोड़ी-सी हटकर है. अपने घर में एक नारी किस तरह से पहले अपनी आकांक्षाओं को
दबा लेती है, लेकिन जब उन आकांक्षाओं का मज़ाक अपने घर वाले ही बनाते हैं,
तो वो चुभने लग जाते हैं.इसी का मसला इस फ़िल्म में दिखाया गया है.
इंग्लिश सीखने के लिए श्रीदेवी की जिज्ञासा और जद्दोजहद को इस फ़िल्म में
ख़ूब फ़िल्माया गया है. भारतीय सिनेमा में यह कहानी एक प्रयोग की तरह थी,
जो समाज के लिए सार्थक सिद्ध हुई.
6. ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा (2011)
फ़िल्म का निर्देशन करने वाली ज़ोया अख़्तर को इस फ़िल्म से पहचान मिली.
इस फ़िल्म में तीन बचपन के दोस्तों की दोस्ती का फलसफ़ा दिखाया गया है.
शादी से पहले होने वाली बैचलर पार्टी के दौरान तीनों दोस्त अपने कॉलेज के
ख़्बावों को पूरा करने के लिए एक विदेश यात्रा पर जाते हैं. इसमें रोमांच,
प्रेम और भावनाओं का समन्वय पेश किया गया है.
7. शाहिद (2013)
यह फ़िल्म एक व्यवस्थाओं से लड़ते वक़ील की आत्मकथा पर आधारित है. 1993
में हुए मुंबई हमलों के बाद मुस्लिमों को किस तरह से ज़िल्लत का सामना करना
पड़ा था, उसकी एक जीवंत मिसाल थे शाहिद आज़्मी. राम कुमार राव ने इस
किरदार को समझने के साथ-साथ जीने की पूरी कोशिश की और वो इसमें सफ़ल भी
रहे. हंसल मेहता के निर्देशन ने शाहिद आज़्मी की दिक्कतों को जगज़ाहिर करके
बहुत उम्दा और ज़िंदादिली की मिसाल पेश की.
8. क्वीन (2014)
कंगना रनौत ने राजौरी गार्डन की रानी के अभिनय में हास्य के साथ-साथ एक
संदेश देने की पहल की. इस फ़िल्म में हमारे समाज की जड़ों से चली आ रही
स्त्री निर्भरता की प्रथा को किनारे कर स्वयं जीने के मायने साबित करने का
जौहर दिखाया. फ़िल्म का निर्देशन विकास बहल ने किया है.
9. सुलेमानी कीड़ा(2014)
लेखकों को कितनी दिक्कतें होती हैं कोई क्या जाने? इस फ़िल्म में इन
दिक्कतों के साथ-साथ थोड़ी हंसी, शरारत और रोमांस को भी जगह दी गई है. The
Viral Fever Production ने इस फ़िल्म का निर्माण किया है.
10. सुपरमैन ऑफ़ मालेगांव (2012)
मुंबई के पास बसा ये गांव लोकल फ़िल्म मेकर्स की वजह से बॉलीवुड से ले
कर टॉलीवुड तक मशहूर है. इस फ़िल्म में एक निर्देशक की आकांक्षाओं को मेहनत
के पर लगते दिखाया गया हैं. इस फ़िल्म का एक किरदार जब ये कहता है कि
“मुंबई यहां से 300 किलोमीटर दूर है. मैं बीते कई सालों से उसकी ओर जाता जा
रहा हूं और मुंबई है कि और भी दूर होती जा रही है”. ये सवांद बॉलीवुड
फ़िल्मों की चकाचौंध को एक तरफ़ कर के एक नई इबारत दर्ज करने की पहल करता
है. सच में यह फ़िल्म, फ़िल्म के लिए बनी है.
11. Miss Lovely (2014)
इस फ़िल्म के निर्देशक असीम आहलूवालिया हैं. इसकी कहानी काफ़ी अलग है.
एक भाई बिलकुल देहाती दिखाया है बल्कि दूसरा एक नंबर का फ़रेबी, जो एडल्ट
फ़िल्म्स का निर्देशन करता है. रिश्ते के बीच में कारोबारी स्वार्थ, प्रेम
की सीमाएं और फ़रेबी भाई का अंत बड़े ख़ूब तरीके से चित्रित किया गया है.
इस फ़िल्म में नवाज़ुद्दीन का अभिनय काफ़ी सराहा गया है.
12. Oh My God (2012)
फ़िल्म की स्टोरी एक गुजराती नाटक “कांजी विरूद्ध कांजी ” से ली गई है.
भगवान के अस्तित्व को नकारने की पहल करते परेश रावल ने विद्रोही की भूमिका
अदा की है, जबकि अक्षय कुमार ने श्रीकृष्ण का रोल निभाया है. इस फ़िल्म से
लोगों की धार्मिक भावानाएं अहात चाहे हुई हों, लेकिन दृढ़ता भी लाज़मी बनी
होगी. इस फ़िल्म को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया.